Greetings! This is the Hindi version of the verse-a-tale "Reveries of Rathore". You can view the English version by clicking on the link to the right.
___________________________________________
मनोरंजक पश्चावलोकन तो है निस्संदेह उत्तेजक ।
कुछ दिन पहले मैं बहुत वर्षों से परिचित एक
व्यक्ति से मिला । दोनों लगभग पाँच दशकों से एक-दुसरे के अस्तित्व को जानते थे, जिस अवधि के
अंतर्गत पांच बार हमारी भेंट भी हो चुकी थी । इनमे सबसे अधिकतर समय का समागम वह था जब हम किशोर अवस्था में दिल्लीकी गलियों में
क्रिकेट खेला था । मैं अपने मौसी के घर छुट्टियों में गया था और वह था मेरे मौसेरे
भाई का घनिष्ठ मित्र । इसके पश्चात हुए सभी मिलाप थे कुछ क्षणों के - कभी कोई उत्सव में या फिर किसी और सामाजिक
समारोह में । हमारी विलंबतम भेंट हुई अक्टूबर २०१७ को, मौसेरे भाई
के बेटे के विवाह के सन्दर्भ मे । अब दोनों थे कार्य निवृत्त । मनोविनोद के लिए मै
लिखता था तो वह करता चित्रकारी । दोनों के बीच हुई कलात्मक विनिमय और रखी गयी नीव एक
नै तरह की प्रायोगिक जुगलबंदी की । पर सब से महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि अब तक जो परिचित कहलाता था वह बना मित्र ।
मित्र ने आगामी सप्ताह अंकीय माध्यम से भेजे
उसके बनाये कुछ चित्र । कुल बारह थे । और अब
प्रारम्भ हुआ मेरा काम । उन चित्रों मे यदि कोई एक समन्वय विषय था, तो वो था भारत
का पश्चिम प्रदेश राजस्थान । उन्हें मैंने विभिन्न अनुक्रमों मे रख कर ढूंढा एक अनोखा
कथानक जो स्पर्श कर जाये मन को । सफलता भी मिली और जन्म हुआ "मननशील वयोवृध्द
राठौड़" का । स्पष्टतः, कार्य के अंतर्गत
ऐसे समस्याएं आयी जिनसे जूझने तरह तरह के हथकंडे अपनाने पड़े । भेजता मैं मित्र को समस्या
की विश्लेषित प्राचल और वह मुझे सौंपता वर्ण भरे चित्र रुपी उपाय । देखता ही देखते
बन गयी २५ चित्र तथा १९२ चरण वाली कहानी ।
___________________________________________
मननशील वयोवृद्ध राठौड़
दूरवर्ती थी दृष्टि, उत्साहित था अनुमान ।
बहकर भावनाओंमें उसने भरी स्मरण उडान ।
चरचराता सुखासन ने किया अवधि गणन ।
तालबद्ध डौल सजाया उदात्त वातावरण ।
हर्ष-शोक के बीच, अस्पष्ट भावुकता ग्रस्त ।
निश्चिंत झूल रहा था, अपनी धुन मे उन्मत्त ॥
पृष्ठभूमि रणथम्भोर दुर्ग, अभेद्य तथा प्रबल ।
प्राचीन स्वजन निर्माणित, प्रयोग अति सफल ।
शिला, चूना, रुधिर, स्वेधजल, ये थे प्रयुक्त द्रव्य ।
युगों तक बना राठौड़ वंशजों का गढ़ अदम्य ।
साक्षी बना शत्रुदमन का, शांति के प्रवाह का ।
देखे परिणाम सम्बन्धियों के आतंरिक कुचक्र का ।
दृढ भूपतियों के लिए स्थान था अति उत्तम ।
हुई प्रतिष्ठा स्थापना, सुनिश्चित हुए
नियम ।
कछारी उपजाऊ समतल प्रदेश, पूर्व में, हरा-भरा ।
शुष्क, बंजर पहाड़ियों से घिरी थी पश्चिम दिशा ।
विषमित भूखंडों से हुआ निवासियों पर अटल प्रसार ।
विपरीत, किन्तु मैत्रीपूर्ण, लक्षण,
किये खुलकर स्वीकार ॥
सदैव, उसके प्रति विचार
से, अडिग गुंथा होता ।
प्रत्येक संभव रंग, उनके कई साये उथले-गहरे ।
बंसी वादक बन बूझता प्रेमिका का उन्मत्त संचलन ।
सुखद, मनोहर रस भरपूर या फिर तीक्ष्णता ।
निरंतर शांतचित्त अपनी प्रिय पत्नी का चिंतन
।
सर्वथा विरोधात्मक था उसका अपना चाल-चलन ।
जन्मज थी देश परे उच्च पहाड़ियों से आगे दूरस्थ ।
मन उसके कोमल अधीन अस्त था राठौड़ प्रेम-ग्रस्त ॥
प्रत्येक संभव रंग, उनके कई साये उथले-गहरे ।
सामंजस्य जीवन उनका, इनमे लिप्त जो ठहरे ।
आनंदित मनोदशा मे मग्न, जीवंत वर्णक ढाल ।
फीकी धुंधली थी रंगत जहां उदासीन अन्तरकाल
।
हुड़दंगी रंग मिश्रण बन बैठा उत्सव काल योग्य
।
पहने वस्त्र भी प्लावित हुए, रंगा था आरोग्य ॥
दिन की तेजस्वी चमक का कभी था न एकाधिपत्य ।
प्रचलित रंगीन उत्तेजना अथवा निठुराई का दलपत्य ।
रात्रिय अंधकार का था अपना भिन्न नाटक शास्त्र
।
छाया माध्यम से होते व्यक्त दया-घृणा के पात्र
।
उद्देश्य स्पष्टता का संकेत था, संध्या का व्यतिरेक ।
इनके महत्व पर विशेषज्ञों के गंभीर अभिप्राय अनेक ॥
छह दशाब्दियों के थे वो आत्मिक सहयोगी ।
बुढ़ापे की स्थिति अनुसार स्मृतिलोप भोगी ।
अतीत के धुंद से निकल पड़ते विगत अनुस्मरण
।
छोड़ जाते राठौड़ के मुख पर तुष्ट प्रभा कुछ
क्षण ।
किन्तु थी एक घटना, सूक्ष्मता से चित्रित उसके मन ।
निजी एकांत स्थल मे बैठे चंद्र-कांती मे घिरे
।
भरते उमंगी उड़ान स्वच्छंदता मे, काल्पनिक पंख धरे ॥
सूर्य उतरा क्षितिज और मंदता मे, तीसरे प्रहर के संग ।
कार्यरत मधुकर और पंछी की मुखाकृति छाए भ्रूभंग
।
परछाईयाँ बढ़ी, आकाश की लाली, मानो पूर्ण प्रदीप्त ।
मराल के वायुतिरण ताक रहा था राठौड़ विस्मयभीत
।
जब निस्तेज पक्षी उसके सीमित दृक्ष्टि क्षेत्र
किये पार ।
एक अन्य
कलात्मक रचना को देख आँखें हुए विस्तार ॥
पत्नी सृष्टीकृत वस्तु, थी राठौड़ की अत्यंत अमूल्य निधि ।
कोमलता की पहली भेंट प्रेमिका की,
पहला उपहार सामग्री ।
रजाई असामान्य, जंगली जंतुओं के रूपांकन से सजित ।
अनुराग, उत्सुकता, कपड़ा, सूत्र, प्रयोग हुए असंयमित ।
परम निष्ठा आधार, उसपर भावनाओं की जमकर कढ़ाई ।
आदर के टांके, सौहार्द आवरण,
आनंद अंतिम सिलाई ।
दीवार पे अब रजाई पूजित हो लटका, रही न जब प्रेमिका ।
अन्य बने उसके सुंदरता के दास, राठौड़ के लिए थी जीविका ॥
अश्व चित्र से अनुस्मरण हुए कुछ रोचक उपाख्यान
।
जब पाया अक्षम नरेश के सभा मे रक्षक का सम्मान
।
थे उसके आंतरायिक कार्य-संक्षिप्त,
औपचारिक मात्र ।
नियत पोशाक पहिन रचा, पाखंडी दलप्रमुख का पात्र ।
किया नायकत्व व्यूह-रचना की, बन कठोर घुड़सवार ।
नागरिक देख करते, संताप के बदले, गत यश व्यापार ।
समय आनंदमय, स्वतन्त्र राठौड़ का, कृत्य के पश्चात ।
पति पत्नी
घुमते प्रदेश, घोड़े की दुलकी-चाल साथ॥
परखा निडर राठौड़ चिमटकर कई उद्यमिक श्रमदान
।
प्राज्ञ कार्य-कलापों से ऐक्यता उसके,
थे व्याकुलवान ।
प्रयास किया सच्चाई से कुछ दिन, पार-सीमा व्यापार ।
चली साथ चिरस्थायी संगी, उसके विश्रम्भ का आधार ।
अनन्य माल लेचला पाने, लाभप्रद मोल-तोल, कर पणन ।
बंजर मरूदेश की यात्रा, उष्ट्र अनुगामी-समूह थे वाहन ।
अभिलाषा और सफलता के बीच सदैव जैसे होती भूल
।
क्षतिपूरण हो जाता पर्याप्त उनके यतार्थ साहचर्य अनुकूल ॥
आर्थिक वृद्धि के दृष्टिकोण से अंतिम उपजीविका
।
श्रम निठरता न झेल पाना अब थी उसकी भूमिका
।
चौकीदार दूर जंगल में, आश्रय स्थान बिना जन-गण ।
कई दिनों तक वहां न होता सार्थक मानवीय मिलन
।
पर फैली वनस्पति की हरियाली और फुर्तीले पशुवर्ग
।
आत्मीयता इनसे भी थी, प्रगाढ़ तथा अबाध निसर्ग ।
अद्भुत, अन्य प्राणियों के जीवन प्रक्रियायों की कृति ।
गाता मंगलवाद, प्रेरणा थी दिवंगत प्रेमिका की स्मृति ॥
न था संकेत पलक फिसलन के, थे जो अति क्लांत ।
अस्थायी रोक लगे नेत्र पर, सतत पर्यवेक्षण पड़े शांत
।
रुका आसन का प्रदोलन, थमी उसकी नपी चरमराहट ।
चौखट बैठा धुग्धू ने लिए कुछ तिरछे कुलांच झटपट ।
बारी थी प्रदर्शन चद्रमा की, बहुश्रमसिद्ध छायानाट्य ।
ऊँघन किया मन्त्रमुग्धक, दृश्य उपेक्षण बना अनिवार्य ।
अभिमंत्रित स्वप्नमय भ्रम विलीन, केन्द्रावती प्रेमिका ।
ठहरा स्तब्धता में राठौड़, न घर का न घाट का ॥
अकपट नवीनता भरे दिन का अग्रदूत बन आया प्रभात ।
नया उदय उत्साह भरा, सुखदायी धुंधली निशा पश्चात ।
सचेत हुआ राठौड़ जीर्णोद्धार हो, फैली विभा सहित ।
प्रोत्साहन, अवरोध, प्रशंसा, सुधार, सब करने प्रेरित ।
आवेगहीन सम्मानजनक नमन सूर्या को दान ।
चल पड़ा वह लंगड़ाता दिनचर्याओं में केंद्रित ध्यान ।
लड़कपन का अभ्यास, माता प्रति श्रद्धा
प्रमाण ।
अग्रगामी वंशज की अभिस्वीकृति यह
निष्ठावान ॥
प्रदान किये प्रमुख वंशज के प्रशंसनीय ख्याति
।
कुछ गौरवी मनोभाव; आकस्मिक रोमांच भांति ।
उनमे कई ऐसे प्रख्यात जीवन गाथाओं का कथन ।
साहस, प्रेम, और युक्ति का था अनोखा
मिश्रण ।
कई अपरिचित जीवी, हर प्रसिद्ध व्यक्ति के वैषम्य ।
इतिहास के पक्षपात का, यह भी था एक घोर सत्य ।
संशय राठौड़ को कभी न था, वृत्तांत में उसका स्थान ।
कदापि न समझा भाग्य ने उसे सौपा कुछ अनुचित ॥
तरुण अवस्था से ही थी राठौड़ की एक चाल चतुर
।
परास्त किया ठेठ सामाजिक मानक पाया जो निष्ठुर ।
रचा, तथा प्रयोग किया, परखने एक निजी मापदंड ।
अंतरंग चयन करता, जब होते विकल्प अनेक, अखंड ।
इसी प्रकार ही थी उसकी पत्नी की प्राकृतिक प्रवृत्ति ।
साहचर्य में उनके थे न कोई आभाव अथवा विपत्ति ।
गौरव, समृद्धि, धैर्य, प्रचुरता, तथा सभी अस्तित्व गुण ।
उनके घनिष्ठता में लुप्त, किये लोकिकता अतिक्रमण ।
नियति की नियंत्रण पर राठोड का संपूर्ण धारणा
।
चेतना की प्रक्षेप, महान विराट विद्यमान योजना ।
उचित विकल्प के अभाव में वह किया स्वीकार
।
एक सर्वशक्तिमान सत्व, जिसके थे सभी आभार ।
कदाचित श्रद्धामय उपस्थिति हो जाती अकस्मात् ।
टेक लेता माथा अपनी, देवालय में, पत्नी साथ ।
न कृतज्ञता के प्रस्ताव, न निवेदन निराशा भरण ।
करता केवल सृष्टि प्रभाव का अचंभा अंगीकरण
।
पत्नी कुछ अधिक, धार्मिक अनुष्ठानों में लीन ।
पुरोहिती सूत्र, वचन में; किन्तु अन्धविश्वासहीन ।
माना सदय राठौड़ इन्हें प्ररूपी झुकाव स्त्रियोचित ।
धीरजपूर्वक चेष्टा उसकी, करने सामरस्यता सिद्ध ।
सहचरी को अर्पित प्रसंविदा, करता नित्य सम्मान ।
समझा उसके आचरणीय उद्दिष्टता, लोक कल्याण ॥
मनोरंजक पश्चावलोकन तो है निस्संदेह उत्तेजक ।
किन्तु क्षुधा, उत्कंठा प्रेरित करती विद्रोह शारीरिक ।
वातावरणीय क्रमागत-उन्नति से स्पष्ट प्रभावित ।
स्वर्गीय पत्नी की पाक कला से लगभग सुपरिचित ।
तापता खिचड़ी बना तुरंत, परिवेश स्वादिष्ट-स्मृति ।
लौटा लंगडता राठौड़, चारपाई के स्वागतीय सुगति ।
मंद झोंके माध्यम फैली बरसाती मिटटी की गंध
।
मायावी वर्षा आगमन सूचना, समूह पुष्टिकृत छंद ।
कश खींचा चिल्लम से वृद्ध, चली खाँसी अविरल ।
अनिद्र स्वप्न का पुनरागमन, जब दैहिक गुत्थी हल ॥
स्थित किया परिभाषित मंच संभवतः वर्षा की दुर्लभता।
बनाया आकारिक उसने सामान्य जन के मानसिकता ।
कृषि रही अधिकतर निर्भर इस प्राकृतिक उपहार
पर ।
धारणा थी कि विधि चली अनिश्चता नियंत्रित
कर ।
तार्किक निष्कर्ष किया प्रमाणित इस विचार,
कि ईश्वर,
पर्याप्त रूप से यदि प्रशस्त, बरसायेंगे कृपा नभ भर ।
वर्ष के आधिकांश समय जब रहता क्षेत्र सूखे
में घेरा ।
ऐसे विचारधाराएं सभी के मनमें, बना जाते स्थायी डेरा ।
दूर गिरी बिजली, संभव वर्षा का ढोंग
गगन सजाया ।
परोक्ष
दबाव डाल राठौड़ पर, प्रेमिका स्मरण करवाया ॥
असाधारणता वर्षा की न थी विरलता एक मात्र
कारण ।
वृष्टि कारण यथोचित रूप खड़ा अकड़, सुशीलता धारण ।
स्वतंत्रता से प्रवाहित जल पहुंची प्रति अगम्य कोटरिका ,
अथवा ढालों से झरझराता निकली मानो कोई नदिका
।
बढ़ाया स्वाद जीवन का ऐसा सामंजस्यपूर्ण वातावरण
।
विस्मय नहीं कि उन्मादपूर्ण मयूर किये मंत्रमुग्ध नटन ।
ढूंढते राठौड़ दम्पति कोई गुप्त व्यक्तिगत
अवस्थिति ।
आलिंगन होकर सिद्ध करते एकजुटता की उच्च रीती
।
न होती कोई अनिवार्य कार्यसूची, न योजना चरितार्थ ।
बौछाड़ का सौंदर्य देखा करते लेकर हाथों में
हाथ ।
भारी वर्षा उपरांत हुई कुछ ऐसी व्यावहारिक अभिमुखता ।
अनोखा भाव गतिरोध का जिसमे न उदासी न विषण्णता ।
धीरे ये परिवर्तित हुए, बने प्रतीकात्मक प्राप्ति तथा पूर्ती ।
मुरझाई प्रति वस्तु की हुई पुनः प्रवर्तन, बने पुनः विक्षुब्द्धी ।
महोदया राठौड़ करती जाँच, मोतियों जैसी बूंद ओस
के ।
जो कोमलता से डटकर चिमटे रहते हरियाली के पटल से ।
अधिक मूल्यवान थे ये उसको आभूषण के तुलना
।
प्रकृति के आनंदोत्सव अनुस्मारक ये तरल डलियां
।
करता खड़े-खड़े राठौड़ मुग्ध हो प्रेमिका अवलोकना
।
जो मग्न
अनुरक्त सम्मोहन
में, जी रही थी कल्पना ।
भुजाएँ धरे नए दायित्वों के भार पुनर्स्थापित
संसार के ।
नयी जटिलताएं, नयी प्रक्रियाएं श्रम
के, व्यापार के ।
नयी लगन, नयी विवेचना, नए लक्ष्य स्पष्ट व्यक्त ।
माध्यम कटौती के कठोर, मार्ग प्रसार के अस्तव्यस्त ।
नए उपाय शोषण के, प्रभेद करने नए विशिष्ट श्रेणियां ।
सोचा राठौड़ कदाचित होंगे, अनगिनत नए प्रेमकहानियां ।
ब्याह से बीती अर्ध सदी, न मची कोई गंभीर अनबन ।
आपसी भरोसा, विद्वेष से रक्षा की योग्य अवलम्बन ।
सप्राण रहने की श्रांत से काया हुई अति ग्लानिमय
।
न महत्त्व देता प्रतीत लक्षणों को, समय तो था निर्दय ।
वर्तमान की निरंतर निष्ठुरता लगाई कर्मनिष्ठा पर कर ।
प्रेम भाषा की सूक्ष्मताए सीमित, मन की प्रथा पर निर्भर ।
साभार करते भूत-चिंतन, अब उनकी कर्मठता प्रधान ।
पुनः अनुरेखण किये उन्हें, नवीकृत सौभाग्य प्रदान ।
पत्नी की स्वास्थ्य एकाएक ढलान लुडक चली ।
वाणी हो चली रूक्ष, अनिमेष; दृष्टी पड़ी धुंधली
।
अंतर्ज्ञान था राठौड़ को, आभास एक उसके मन ।
प्रातिभज्ञान जो संकेत किया आसन्न परिवर्तन
।
एक अनोखे शान्ति की महक से व्याप्त हुए विचार ।
किया पत्नी जीवन की निकटस्थ समाप्ति स्वीकार
।
संशयकार प्रश्न था राठौड़ का, "क्या यही प्रज्ञता?"
।
यह जानते,
विश्वस्य उत्तर की आशा होगी मूर्खता ।
कुछ हाफियां; और इससे पहले कि, हो अटल श्वास हरण ।
शरीर राठौड़
के भुजा तले, आलिंगन की उसने मरण ॥