Friday, November 24, 2017

Greetings! This is the Hindi version of the verse-a-tale "Reveries of Rathore". You can view the English version by clicking on the link to the right.



             इस प्रयोगात्मक अभ्यास की कहानी

कुछ दिन पहले मैं बहुत वर्षों से परिचित एक व्यक्ति से मिला । दोनों लगभग पाँच दशकों से एक-दुसरे के अस्तित्व को जानते थे, जिस अवधि के अंतर्गत पांच बार हमारी भेंट भी हो चुकी थी । इनमे सबसे अधिकतर समय का समागम  वह था जब हम किशोर अवस्था में दिल्लीकी गलियों में क्रिकेट खेला था । मैं अपने मौसी के घर छुट्टियों में गया था और वह था मेरे मौसेरे भाई का घनिष्ठ मित्र । इसके पश्चात हुए सभी मिलाप थे कुछ क्षणों  के - कभी कोई उत्सव में या फिर किसी और सामाजिक समारोह में । हमारी विलंबतम भेंट हुई अक्टूबर २०१७ को, मौसेरे भाई के बेटे के विवाह के सन्दर्भ मे । अब दोनों थे कार्य निवृत्त । मनोविनोद के लिए मै लिखता था तो वह करता चित्रकारी । दोनों के बीच हुई कलात्मक विनिमय और रखी गयी नीव एक नै तरह की प्रायोगिक जुगलबंदी की । पर सब से महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि अब तक जो परिचित कहलाता था वह बना मित्र ।


मित्र ने आगामी सप्ताह अंकीय माध्यम से भेजे उसके बनाये कुछ चित्र । कुल बारह थे ।  और अब प्रारम्भ हुआ मेरा काम । उन चित्रों मे यदि कोई एक समन्वय विषय था, तो वो था भारत का पश्चिम प्रदेश राजस्थान । उन्हें मैंने विभिन्न अनुक्रमों मे रख कर ढूंढा एक अनोखा कथानक जो स्पर्श कर जाये मन को । सफलता भी मिली और जन्म हुआ "मननशील वयोवृध्द राठौड़" का ।  स्पष्टतः, कार्य के अंतर्गत ऐसे समस्याएं आयी जिनसे जूझने तरह तरह के हथकंडे अपनाने पड़े । भेजता मैं मित्र को समस्या की विश्लेषित प्राचल और वह मुझे सौंपता वर्ण भरे चित्र रुपी उपाय । देखता ही देखते बन गयी २५ चित्र तथा १९२ चरण वाली कहानी ।


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             मननशील वयोवृद्ध राठौड़



         दूरवर्ती थी दृष्टि, उत्साहित था अनुमान
         बहकर भावनाओंमें उसने भरी स्मरण उडान
         चरचराता सुखासन ने किया अवधि गणन
         तालबद्ध डौल सजाया उदात्त वातावरण ।
         हर्ष-शोक के बीच, अस्पष्ट भावुकता ग्रस्त ।
         निश्चिंत झूल रहा था, अपनी धुन मे उन्मत्त




         पृष्ठभूमि रणथम्भोर दुर्ग, अभेद्य तथा प्रबल ।
         प्राचीन स्वजन निर्माणित, प्रयोग अति सफल ।
         शिला, चूना, रुधिर, स्वेधजल, ये थे प्रयुक्त द्रव्य
         युगों तक बना राठौड़ वंशजों का गढ़ अदम्य ।
         साक्षी बना शत्रुदमन का, शांति के प्रवाह का ।
         देखे परिणाम सम्बन्धियों के आतंरिक कुचक्र का





         दृढ भूपतियों के लिए स्थान था अति उत्तम ।
         हुई प्रतिष्ठा स्थापना, सुनिश्चित हुए नियम ।
         कछारी उपजाऊ समतल प्रदेश, पूर्व में, हरा-भरा ।
         शुष्क, बंजर पहाड़ियों से घिरी थी पश्चिम दिशा ।
         विषमित भूखंडों  से हुआ निवासियों  पर अटल प्रसार
         विपरीत, किन्तु मैत्रीपूर्ण, लक्षण, किये खुलकर स्वीकार





        सदैव, उसके प्रति विचार से, अडिग गुंथा होता ।
        सुखद,  मनोहर रस भरपूर  या फिर तीक्ष्णता ।
        निरंतर शांतचित्त अपनी प्रिय पत्नी का चिंतन ।
        सर्वथा विरोधात्मक था उसका अपना चाल-चलन ।
        जन्मज थी देश परे उच्च पहाड़ियों से आगे दूरस्थ
        मन उसके कोमल अधीन अस्त था राठौड़ प्रेम-ग्रस्त




         प्रत्येक संभव रंग, उनके कई साये उथले-गहरे ।
         सामंजस्य जीवन उनका, इनमे लिप्त जो ठहरे ।
         आनंदित मनोदशा मे मग्न, जीवंत वर्णक ढाल ।
         फीकी धुंधली थी रंगत जहां उदासीन अन्तरकाल ।
         हुड़दंगी रंग मिश्रण बन बैठा उत्सव काल योग्य ।
         पहने वस्त्र भी प्लावित हुए,  रंगा था आरोग्य ॥




        दिन की तेजस्वी चमक का कभी था न एकाधिपत्य ।
        प्रचलित रंगीन उत्तेजना अथवा निठुराई का दलपत्य
        रात्रिय अंधकार का था अपना भिन्न नाटक शास्त्र ।
        छाया माध्यम से होते व्यक्त दया-घृणा के पात्र ।
        उद्देश्य स्पष्टता का संकेत था, संध्या का व्यतिरेक ।
        इनके महत्व पर विशेषज्ञों के गंभीर अभिप्राय अनेक




        छह दशाब्दियों के थे वो आत्मिक सहयोगी ।
        बुढ़ापे की स्थिति अनुसार स्मृतिलोप भोगी ।
        अतीत के धुंद से निकल पड़ते विगत अनुस्मरण ।
        छोड़ जाते राठौड़ के मुख पर तुष्ट प्रभा कुछ क्षण ।
        किन्तु थी एक घटना, सूक्ष्मता से चित्रित उसके मन ।
        बंसी वादक बन बूझता प्रेमिका का उन्मत्त संचलन
        निजी एकांत स्थल मे बैठे चंद्र-कांती मे घिरे ।
        भरते उमंगी उड़ान स्वच्छंदता मे, काल्पनिक पंख धरे




       सूर्य उतरा क्षितिज और मंदता मे, तीसरे प्रहर के संग ।
       कार्यरत मधुकर और पंछी की मुखाकृति छाए भ्रूभंग ।
       परछाईयाँ बढ़ी, आकाश की लाली, मानो पूर्ण प्रदीप्त ।
       मराल के वायुतिरण ताक रहा था राठौड़ विस्मयभीत ।
       जब निस्तेज पक्षी उसके सीमित दृक्ष्टि क्षेत्र किये पार
       एक अन्य कलात्मक रचना को देख आँखें हुए विस्तार




     पत्नी सृष्टीकृत वस्तु, थी राठौड़ की अत्यंत अमूल्य निधि ।
     कोमलता की पहली भेंट प्रेमिका की, पहला उपहार सामग्री ।
     रजाई असामान्य, जंगली जंतुओं के रूपांकन से सजित ।
     अनुराग,  उत्सुकता,  कपड़ा,  सूत्र,  प्रयोग हुए असंयमित ।
     परम निष्ठा आधार, उसपर भावनाओं की जमकर कढ़ाई ।
     आदर के टांके,  सौहार्द आवरण, आनंद अंतिम सिलाई ।
     दीवार पे अब रजाई पूजित हो लटका, रही न जब प्रेमिका ।
     अन्य बने उसके सुंदरता के दास, राठौड़ के लिए थी जीविका ॥




      अश्व चित्र से अनुस्मरण हुए कुछ रोचक उपाख्यान ।
      जब पाया अक्षम नरेश के सभा मे रक्षक का सम्मान ।
      थे उसके आंतरायिक कार्य-संक्षिप्त, औपचारिक मात्र ।
      नियत पोशाक पहिन रचा, पाखंडी दलप्रमुख का पात्र ।
      किया नायकत्व व्यूह-रचना की, बन कठोर घुड़सवार ।
      नागरिक देख करते, संताप के बदले, गत यश व्यापार ।
      समय आनंदमय, स्वतन्त्र राठौड़ का, कृत्य के पश्चात ।
      पति पत्नी घुमते प्रदेश,  घोड़े की दुलकी-चाल साथ॥




      परखा निडर राठौड़ चिमटकर कई उद्यमिक श्रमदान ।
      प्राज्ञ कार्य-कलापों से ऐक्यता उसके, थे व्याकुलवान ।
      प्रयास किया सच्चाई से कुछ दिन, पार-सीमा व्यापार ।
      चली साथ चिरस्थायी संगी, उसके विश्रम्भ का आधार ।
      अनन्य माल लेचला पाने, लाभप्रद मोल-तोल, कर पणन ।
      बंजर मरूदेश की यात्रा, उष्ट्र अनुगामी-समूह थे वाहन ।
      अभिलाषा और सफलता के बीच सदैव जैसे होती भूल ।
      क्षतिपूरण हो जाता पर्याप्त उनके यतार्थ साहचर्य अनुकूल




      आर्थिक वृद्धि के दृष्टिकोण से अंतिम उपजीविका ।
      श्रम निठरता न झेल पाना अब थी उसकी भूमिका ।
      चौकीदार दूर जंगल में, आश्रय स्थान बिना जन-गण ।
      कई दिनों तक वहां न होता सार्थक मानवीय मिलन ।
      पर फैली वनस्पति की हरियाली और फुर्तीले पशुवर्ग ।
      आत्मीयता इनसे भी थी, प्रगाढ़ तथा अबाध निसर्ग ।
      अद्भुत, अन्य प्राणियों के जीवन प्रक्रियायों की कृति ।
      गाता मंगलवाद, प्रेरणा थी दिवंगत प्रेमिका की स्मृति ॥




       न था संकेत पलक फिसलन के, थे जो अति क्लांत ।
       अस्थायी रोक लगे नेत्र पर, सतत पर्यवेक्षण पड़े शांत ।
       रुका आसन का प्रदोलन, थमी उसकी नपी चरमराहट ।
       चौखट बैठा धुग्धू ने लिए कुछ तिरछे कुलांच झटपट ।
       बारी थी प्रदर्शन चद्रमा की, बहुश्रमसिद्ध छायानाट्य ।
       ऊँघन किया मन्त्रमुग्धक, दृश्य उपेक्षण बना अनिवार्य ।
       अभिमंत्रित स्वप्नमय भ्रम विलीन, केन्द्रावती प्रेमिका ।
       ठहरा स्तब्धता में राठौड़,   न घर का न घाट का ॥




      अकपट नवीनता भरे दिन का अग्रदूत बन आया प्रभात
      नया उदय उत्साह भरा, सुखदायी धुंधली निशा पश्चात
      सचेत हुआ राठौड़ जीर्णोद्धार हो, फैली विभा सहित
      प्रोत्साहन, अवरोध, प्रशंसा, सुधार, सब करने प्रेरित ।
      आवेगहीन सम्मानजनक नमन  सूर्या को दान ।
      चल पड़ा वह लंगड़ाता दिनचर्याओं में केंद्रित ध्यान
      लड़कपन का अभ्यास,  माता प्रति श्रद्धा प्रमाण ।
      अग्रगामी वंशज  की अभिस्वीकृति  यह निष्ठावान




       प्रदान किये प्रमुख वंशज के प्रशंसनीय ख्याति ।
       कुछ गौरवी मनोभाव; आकस्मिक रोमांच भांति ।
       उनमे कई ऐसे प्रख्यात जीवन गाथाओं का कथन
       साहस,  प्रेम,  और युक्ति का था अनोखा मिश्रण
       कई अपरिचित जीवी, हर प्रसिद्ध व्यक्ति के वैषम्य
       इतिहास के पक्षपात का, यह भी था एक घोर सत्य
       संशय राठौड़ को कभी न था, वृत्तांत में उसका स्थान
       कदापि न समझा भाग्य ने उसे सौपा कुछ अनुचित




      तरुण अवस्था से ही थी राठौड़ की एक चाल चतुर ।
      परास्त किया ठेठ सामाजिक मानक पाया जो निष्ठुर
      रचा, तथा प्रयोग किया, परखने एक निजी मापदंड ।
      अंतरंग चयन करता, जब होते विकल्प अनेक, अखंड
      इसी प्रकार ही थी उसकी पत्नी की प्राकृतिक प्रवृत्ति
      साहचर्य में उनके थे न कोई आभाव अथवा विपत्ति
      गौरव, समृद्धि, धैर्य, प्रचुरता, तथा सभी अस्तित्व गुण ।
      उनके घनिष्ठता में लुप्त,  किये लोकिकता अतिक्रमण




       नियति की नियंत्रण पर राठोड का संपूर्ण धारणा ।
       चेतना की प्रक्षेप, महान विराट विद्यमान योजना ।
       उचित विकल्प के अभाव में वह किया स्वीकार ।
       एक सर्वशक्तिमान सत्व, जिसके थे सभी आभार ।
       कदाचित श्रद्धामय उपस्थिति हो जाती अकस्मात् ।
       टेक लेता माथा अपनी, देवालय में,  पत्नी साथ ।
       न कृतज्ञता के प्रस्ताव, न निवेदन निराशा भरण
       करता केवल सृष्टि प्रभाव का अचंभा अंगीकरण ।




        पत्नी कुछ अधिक, धार्मिक अनुष्ठानों में लीन ।
        पुरोहिती सूत्र, वचन में; किन्तु अन्धविश्वासहीन ।
        माना सदय राठौड़ इन्हें प्ररूपी झुकाव स्त्रियोचित
        धीरजपूर्वक चेष्टा उसकी, करने सामरस्यता सिद्ध ।
        सहचरी को अर्पित प्रसंविदा, करता नित्य सम्मान
        समझा उसके आचरणीय उद्दिष्टता, लोक कल्याण




       मनोरंजक पश्चावलोकन तो  है निस्संदेह उत्तेजक
       किन्तु क्षुधा, उत्कंठा प्रेरित करती विद्रोह शारीरिक
       वातावरणीय क्रमागत-उन्नति से स्पष्ट प्रभावित
       स्वर्गीय पत्नी की पाक कला से लगभग सुपरिचित
       तापता खिचड़ी बना तुरंत, परिवेश स्वादिष्ट-स्मृति
       लौटा लंगडता राठौड़, चारपाई के स्वागतीय सुगति
       मंद झोंके माध्यम फैली बरसाती मिटटी की गंध ।
       मायावी वर्षा आगमन सूचना, समूह पुष्टिकृत छंद
       कश खींचा चिल्लम से वृद्ध,  चली खाँसी अविरल ।
       अनिद्र स्वप्न का पुनरागमन, जब दैहिक गुत्थी हल




      स्थित किया परिभाषित मंच संभवतः वर्षा की दुर्लभता।
      बनाया आकारिक  उसने सामान्य जन के मानसिकता
      कृषि रही अधिकतर निर्भर इस प्राकृतिक उपहार पर ।
      धारणा थी कि विधि चली अनिश्चता नियंत्रित कर ।
      तार्किक निष्कर्ष किया प्रमाणित इस विचार, कि ईश्वर,
      पर्याप्त रूप से यदि प्रशस्त, बरसायेंगे कृपा नभ भर ।
      वर्ष के आधिकांश समय जब रहता क्षेत्र सूखे में घेरा
      ऐसे विचारधाराएं सभी के मनमें, बना जाते स्थायी डेरा
      दूर गिरी बिजली,  संभव वर्षा का ढोंग गगन सजाया ।
      परोक्ष दबाव डाल राठौड़ पर, प्रेमिका स्मरण करवाया ॥




      असाधारणता वर्षा की न थी विरलता एक मात्र कारण ।
      वृष्टि कारण यथोचित रूप खड़ा अकड़, सुशीलता धारण ।
      स्वतंत्रता से प्रवाहित जल पहुंची प्रति अगम्य कोटरिका ,
      अथवा ढालों से झरझराता निकली मानो कोई नदिका ।
      बढ़ाया स्वाद जीवन का ऐसा सामंजस्यपूर्ण वातावरण ।
      विस्मय नहीं कि उन्मादपूर्ण मयूर किये मंत्रमुग्ध नटन
      ढूंढते राठौड़ दम्पति कोई गुप्त व्यक्तिगत अवस्थिति
      आलिंगन होकर सिद्ध करते एकजुटता की उच्च रीती ।
      न होती कोई अनिवार्य कार्यसूची, न योजना चरितार्थ ।
      बौछाड़ का सौंदर्य देखा करते लेकर हाथों में हाथ ।




     भारी वर्षा उपरांत हुई कुछ  ऐसी व्यावहारिक अभिमुखता
     अनोखा भाव गतिरोध का जिसमे न उदासी न विषण्णता
     धीरे ये परिवर्तित हुए, बने प्रतीकात्मक प्राप्ति तथा पूर्ती ।
     मुरझाई प्रति वस्तु की हुई पुनः प्रवर्तन, बने पुनः विक्षुब्द्धी
     महोदया राठौड़ करती जाँच,  मोतियों जैसी बूंद ओस के
     जो कोमलता से डटकर चिमटे रहते हरियाली के पटल से
       अधिक मूल्यवान थे ये उसको आभूषण के तुलना ।
       प्रकृति के आनंदोत्सव अनुस्मारक ये तरल डलियां ।
       करता खड़े-खड़े राठौड़ मुग्ध हो प्रेमिका अवलोकना ।
       जो मग्न अनुरक्त सम्मोहन में, जी रही थी कल्पना




       भुजाएँ धरे नए दायित्वों के भार पुनर्स्थापित संसार के
       नयी जटिलताएं,  नयी प्रक्रियाएं श्रम के,  व्यापार के ।
       नयी लगन, नयी विवेचना,  नए लक्ष्य स्पष्ट व्यक्त ।
       माध्यम कटौती के कठोर,  मार्ग प्रसार के अस्तव्यस्त
       नए उपाय शोषण के, प्रभेद करने नए विशिष्ट श्रेणियां
       सोचा राठौड़ कदाचित होंगे, अनगिनत नए प्रेमकहानियां




       ब्याह से बीती अर्ध सदी, न मची कोई गंभीर अनबन ।
       आपसी भरोसा, विद्वेष से रक्षा की योग्य अवलम्बन ।
       सप्राण रहने की श्रांत से काया हुई अति ग्लानिमय ।
       न महत्त्व देता प्रतीत लक्षणों को, समय तो था निर्दय
       वर्तमान की निरंतर निष्ठुरता लगाई कर्मनिष्ठा पर कर
       प्रेम भाषा की सूक्ष्मताए सीमित, मन की प्रथा पर निर्भर
       साभार करते भूत-चिंतन, अब उनकी कर्मठता प्रधान
          पुनः अनुरेखण किये उन्हें, नवीकृत सौभाग्य प्रदान ।




        पत्नी की स्वास्थ्य एकाएक ढलान लुडक चली ।
        वाणी हो चली रूक्ष, अनिमेष; दृष्टी पड़ी धुंधली ।
        अंतर्ज्ञान था राठौड़ को, आभास एक उसके मन ।
        प्रातिभज्ञान जो संकेत किया आसन्न परिवर्तन ।
        एक अनोखे शान्ति की महक से व्याप्त हुए विचार
        किया पत्नी जीवन की निकटस्थ समाप्ति स्वीकार ।
        संशयकार प्रश्न था राठौड़ का, "क्या यही प्रज्ञता?"
        यह जानते,  विश्वस्य उत्तर की आशा होगी मूर्खता
      कुछ हाफियां; और इससे पहले कि, हो अटल श्वास हरण
      शरीर राठौड़ के भुजा तले,   आलिंगन की उसने मरण ॥